जैसे अर्थशास्त्र जब घर की परिधि से बाहर निकल कर राष्ट्र का चिंतन करता है तब वह मैक्रोएकोमोमिक्स बन जाता है वैसे ही जब कोई कवि मानव जीवन के शास्वत मूल्यों एवं राष्ट्र तथा विश्व हित की बात जाने या अनजाने करने लगता है तो वह महाकवित्व की ओर बढ़ जाता है । उसकी चर्चाएँ होने लगती हैं वह लोकप्रियता पाप्त कर लेता है वह पढ़ा जाने लगता है । पर कभी -कभी मूल्यांकन में बहुत समय लग जाता है । तब तो भवभूति को कहना पड़ा था कि काल अनंत है और पृथ्वी विस्तृत , अतः कभी-न-कभी ,कहीं-न-कहीं कोई आयेगा जो उनकी रचनाओं का सही मूल्यांकन कर पायेगा । आज के हिन्दी काव्य जगत में आलोकधन्वा को जो प्रसिद्धि प्राप्त है वह निस्संदेह स्पृहाजनक है पर महाकवित्व के तत्वों से संपृक्त डॉक्टर शैलेश्वर सती प्रसाद हिन्दी कवि के रूप में वह प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर पाए हैं जिसके वे अधिकारी हैं ।
इसके कई कारण हैं । परन्तु , सबसे बड़ा कारण वे स्वयं हैं । कैसे ?
स्थानीय कवि संजय कुंदन ने बहुत सुन्दर लिखा है ;
'एक शख्श में होते हैं कई एक आदमी ,
जब देखना किसी को कई बार देखना । '
डॉक्टर शैलेश्वर सती प्रसाद पटना विश्वविद्यालय के अंगरेजी विभाग के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं । उनके अन्दर का कवि उन्हीं के व्यक्तित्व में पलते शिक्षक रूपी विराट वट वृक्ष की छाया में पड़ कर उपेक्षित होता रहा जबकि आलोकधन्वा के साथ ऐसा नहीं हुआ । यद्यपि आज वे भी वर्धा में एक विश्वविद्यालय में हैं पर वैसा वे कवि के रूप में ख्याति प्राप्त करने के बाद ही कर पाए ।
पर बात इतनी ही नहीं है । आलोचकों ने भी कोताही और लापरवाही बरती है ।
डॉक्टर राजूरंजन प्रसाद अपने ढंग से आलोचना का एक जज्बा रखते हैं । वे मेरे वैसे पुराने मित्र हैं जिनसे मेरा वैचारिक मतभेद लगातार चलता रहा है । आज जब फेसबुक पर दोस्तों का समाचार देख रहा था तो पाया कि मेरे आलोचक मित्र ने मुक्तिबोध के बाद आलोकधन्वा को हिन्दी का सबसे बड़ा कवि बताया है तथा नागार्जुन को भी उनके सामने न्यून ही पाया है ।
डॉक्टर शैलेश्वर सती प्रसाद ने अपनी पुस्तक 'नेतरहाट तथा अन्य कवितायें ' में 'नागार्जुन के प्रति' नामक कविता में लिखा है ,
"तुमने कविता के तेज़ाब में
सर्वस्व को गलाया है
हर शब्द को कारतूस बनाया
पंकियों को तीक्ष्ण संगीत ......" ।
आलोकधन्वा अपनी पुस्तक 'दुनिया रोज बनती है' में मीर पर लिखते हैं ;
"मीर पर बातें करो
तो वे बातें भी उतनी ही अच्छी लगती हैं
जितने मीर । "
मेरी एक कविता कुछ यूं शुरू होती है ,
"मेरी जुबाँ से निकला हर एक शब्द मुझे
अनेक अर्थों में काटता है । " आलोकधन्वा और मीर , डॉक्टर शैलेश्वर सती और नागार्जुन ।
आलोकधन्वा तो लगता है डॉक्टर शैलेश्वर सती की तरह किसी अन्य कवि की प्रशंशा पर मुक्तकंठ हो ही नहीं पाते ।
फोर्मलिस्म kee or sanket karte हुए डॉक्टर शैलेश्वर सती प्रसाद अपनी कविता 'अर्थ' में लिखते हैं ,
"मेरी भाषा की ध्वनि और लय की जड़ें
मेरी धूपछांह साँसों में गहरी जमी हैं
तुम्हारे पास तो केवल उसकी काया है
दोनों को जोड़ने पर ही
अर्थ का सूर्य
प्रज्ज्वलित होगा ............." ।
आवश्यकता है कि निष्कर्स की जल्दबाजी छोड़कर हम आज के कवियों पर बहुआयामी विमर्श करें ।
vichaarvimarsha
Wednesday 31 August 2011
Saturday 27 August 2011
समकालीन लोग (हिंदी)
हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत इन तीन भाषाओँ में मेरे अलग-अलग मित्रों के समुच्य हैं । पता नहीं यह 'समुच्य' शब्द कितना उचित है । मुझे इससे औपचारिक दूरी -सी बनती प्रतीत होती है पर हिंदी में मेरी गति ऐसी ही है । कम-से-कम मेरे चिर परिचितों ने भी तो हिन्दी में मेरे हस्तक्षेप को सहज मान लिया होता । पर ऐसा नहीं हुआ और यह ब्लॉग मैं विचारविमर्श एवं बहस , शिकायत आदि के लिए रखना चाहता हूँ ।
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